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स्वाहा॒ग्नये॒ वरु॑णाय॒ स्वाहेन्द्रा॑य म॒रुद्भ्यः॑। स्वाहा॑ दे॒वेभ्यो॑ ह॒विः ॥११॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svāhāgnaye varuṇāya svāhendrāya marudbhyaḥ | svāhā devebhyo haviḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्वाहा॑। अ॒ग्नये॑। वरु॑णाय। स्वाहा॑। इन्द्रा॑य। म॒रुत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। दे॒वेभ्यः॑। ह॒विः ॥११॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:5» मन्त्र:11 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:21» मन्त्र:6 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोगों को चाहिये कि (वरुणाय) श्रेष्ठ के और (अग्नये) बिजुली आदि की विद्या के लिये (स्वाहा) सत्य वाणी (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य और (मरुद्भ्यः) मनुष्यों के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया तथा (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (हविः) देने योग्य वस्तु और (स्वाहा) श्रेष्ठ कर्म्म का प्रयोग करो ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्या और श्रेष्ठ कर्म्म से अग्नि की विद्या को ग्रहण कर विद्वानों का सत्कार करके मनुष्यों के हित को निरन्तर करें ॥११॥ इस सूक्त में विद्वान्, राजा, गृहाश्रम, राजप्रजाविषय और विद्याग्रहण का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पाँचवाँ सूक्त और इक्कीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! युष्माभिर्वरुणायाग्नये स्वाहेन्द्राय मरुद्भ्यः स्वाहा देवेभ्यो हविः स्वाहा प्रयोक्तव्या ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वाहा) सत्या वाक् (अग्नये) विद्युदादिविद्यायै (वरुणाय) श्रेष्ठाय (स्वाहा) सत्या क्रिया (इन्द्राय) ऐश्वर्याय (मरुद्भ्यः) मनुष्येभ्यः (स्वाहा) सत्क्रिया (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (हविः) दातव्यवस्तु ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्या विद्यासत्क्रियाभ्यामग्निविद्यां गृहीत्वा विदुषः सत्कृत्य मनुष्याणां हितं सततं कुर्वन्त्विति ॥११॥ अत्र विद्वद्राजगृहाश्रमराजप्रजाविषयविद्याग्रहणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चमं सूक्तमेकविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी विद्या व श्रेष्ठ कर्माने अग्निविद्या ग्रहण करून विद्वानांचा सत्कार करून निरंतर माणसांचे हित साधावे ॥ ११ ॥